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महानायक सिदो मुर्मू एवं कान्हू मुर्मू || The Trible Hero - Sidhu (Sido) and Kanhu

हूल बिद्रोह

सिद्धू मुर्मू (सिदो मुर्मू) और कान्हू मुर्मू सगे भाई थे जिन्होने 1855–1856 के संथाल बिद्रोह  का नेतृत्व किया था। सन्थाल विद्रोह ब्रिटिश शासन और भ्रष्ट जमीनदारी प्रथा दोनों के विरुद्ध था।

 

आरंभिक जीवन

सिद्धू मुर्मू और कान्हू मुर्मू का जन्म वर्तमान झारखण्ड  राज्य के भोगनाडीह नामक गाँव में एक संथाल आदिवासी परिवार में हुआ था। सिद्धू मुर्मू का जन्म 1815 . को हुआ था एवं कान्हू मुर्मू का जन्म 1820 . को हुआ था।संथाल बिद्रोह  में सक्रिय भूमिका निभाने वाले इनके अन्य दो भाई भी थे जिनका नाम चाँद मुर्मू और भैरव मुर्मू था। चाँद का जन्म 1825 . को एवं भैरव का जन्म 1835 . को हुआ था। इनके अलावा इनकी दो बहनें भी थी जिनका नाम फुलो मुर्मू एवं झानो मुर्मू था। इन 6 भाई-बहनों के पिता का नाम चुन्नी माँझी था।

1832 में, राज महल पहाड़ियों के एक बड़े क्षेत्र को दामिन-ए-कोह (वर्तमान संताल परगना) के रूप में सीमांकित किया गया। कटक, धालभूम, बीरभूम, मानभूम, हज़ारीबाग़ से संताल चले गए और किसानों के रूप में इन ज़मीनों पर खेती करने लगे 1830 में, यह क्षेत्र केवल 3,000 संथालों का घर था, लेकिन 1850 के दशक तक, 83,000 संथाल भूमि पर बस गए थे और इसे धान के खेतों में बदल दिया था। इसके परिणामस्वरूप क्षेत्र से ईस्ट इंडिया कंपनी के राजस्व में 22 गुना वृद्धि हुई

हालाँकि, जैसे-जैसे वे अधिक कृषि करने लगे, संथालों का जमींदारों द्वारा शोषण किया जाने लगा। संथालों के विपरीत, अंग्रेज़ सहयोग के बजाय व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा को महत्व देते थे। बंगाल के महाजनों और बिहार के बनियों ने अन्यत्र से सामान बेचना शुरू कर दिया, और कई संताल, उन्हें विदेशी मानते हुए, उन्हें खरीदने के लिए कर्ज में डूबे हुए थे, आमतौर पर अपनी जमीन को गिरवी रखकर। जब संथाल साहूकारों को वापस भुगतान करने में असमर्थ हो गए, तो वे भूमि के मालिक बन गए और संथाल बेदखल भूमिहीन किसान बन गए। आख़िरकार, ब्रिटिश कर नीतियों और भ्रष्ट कर संग्राहकों के साथ मिलकर शोषण के ये कार्य इस हद तक बिगड़ गए कि संथाल असंतुष्ट हो गए। 1855 में, उन्होंने संथाल विद्रोह किया, जिसे संथाल हूल के नाम से जाना जाता है।

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सिदो मुर्मू एवं कान्हू मुर्मू 

अलग-अलग क्षेत्रों में असंतोष गहराने लगा था। इसलिए अंग्रेजी शासन के विरुद्ध स्थानीय आदिबासियों एवं गैर आदिवासीयों ने 1853 के समय से ही विरोध करना शुरू कर दिया था। बैठक सभा भी संचालित होने लगा था। ज्यों-ज्यों दमन और शोषण बढ़ता स्थानीय लोग में भी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध क्रोध बढ़ता।समय के साथ पूरे  क्षेत्र में अलग-अलग विद्रोहियों जैसे सिद्धू-कान्हू, चानकु महतो, राजवीर सिंह, शाम परगना, बैजल सौरेन, चालो जोलाह, रामा गोप, विजय, गरभू आदि दर्जनों क्रांतिकारियों ने अपने-अपने क्षेत्रों में स्थानीय लोगों को संगठित कर अंग्रेजों की गलत नीतियों का प्रतिकार करना शुरू कर दिया था। इनमें सबसे जोरदार विद्रोह का स्वर सिद्धू-कान्हू के नेतृत्व में चलाया जा रहा था, यही कारण था कि सिद्धू-कान्हू पूरे जंगल तराई में सबसे सशक्त विद्रोही बनकर उभरे थे। तमाम विद्रोहियों ने सिद्धू-कान्हू से संपर्क साधा और सिद्धू-कान्हू उनके भाई-बहनों के नेतृत्व में 30 जून 1855 को पंचकठियाबरहेट जिला साहिबगंज में पूरे जंगल तराई के तमाम विद्रोहियों उनके समर्थकों की एक सभा बुलाई। सभा में सिद्धू को उनका नेता चुना गया और उनके नेतृत्व में  ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आंदोलन चलाने का निर्णय लिया गया। उसके बाद हजारों लोग ने सिद्धू-कान्हू के नेतृत्व में ब्रिटिश सत्ता, साहुकारों, व्यापारियों जमींदारों के खिलाफ हूल - हूल के नारा के साथ सशस्त्र युद्ध का शुरूवात किया, जिसे संथाल बिद्रोह या हूल आंदोलन के नाम से जाना जाता है। संथाल विद्रोह का नारा था"करो या मरो अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो"  30 जून 1855 की सभा में 5000 से भी ज्यादा आदिवासी एकत्र हुए जिसमें सिद्धू, कान्हू, चाँद एवं भैरव को उनका नेता चुना गया।

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पाकुड़ का मार्टिलो टावर

जबकि अंग्रेजो मे इसका नेतृत्व जनरल लॉयर्ड ने किया जो आधुनिक हथियार और गोला बारूद से परिपूर्ण थे। इस मुठभेड़ में महेश लाल एवं प्रताप नारायण नामक दरोगा की हत्या कर दी गई जिससे अंग्रेजो में भय का माहोल बन गया संतालों के भय से अंग्रेजों ने बचने के लिए पाकुड़ में मार्टिलो टावर का निर्माण कराया गया। अंग्रेजों के पास आधुनिक हथिहार होने के कारण अंततः इस मुठभेड़ में संतालों कि हार हुई और सिद्धू-कान्हू को फांसी दे दी गई। पंचकठिया नामक स्थान पर बरगद के पेड़ पर फांसी दी गई जबकि कान्हू को भोगनाडीह में फांसी दी गई।

कार्ल मार्क्स ने इस विद्रोह कोभारत का प्रथम जनक्रांतिकहा था। आज भी 30 जून को भोगनाडीह में हूल दिवस पर सरकार द्वारा विकस मेला लगाया जाता है एवं विर शहिद सिदो-कान्हू को याद किया जाता है।

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पंचकठिया का बरगद पेड़ जहाँ सिद्धो - कान्हू को फांसी दिया गया था


सिद्धो कान्हु के नाम से बनाया गये स्मारक:

  • भारतीय डाक टिकट पर सिदो मुर्मू - कान्हू मुर्मू। भारतीय डाक ने उन्हें सम्मान देते हुए 2002 में ₹ 4 का टिकट भी जारी किया।
  • सिदो कान्हू विश्वविद्यालय (एस.के.यू.), जिसे अब नया नाम सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय (एस.के.एम.यू.) दिया गया है, की स्थापना 10 जनवरी 1992 को बिहार विधान सभा के एक अधिनियम द्वारा की गई थी। वर्ष 2000 में जब नये राज्य झारखण्ड का गठन हुआ तो यह विश्वविद्यालय झारखण्ड सरकार के अधीन आ गया।
  • शंकुन्तला सिधू कान्हू कॉलेज उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय से संबद्ध एक ग्रामीण, सरकारी सहायता प्राप्त स्नातक कॉलेज है। यह एक नव स्थापित कॉलेज है जिसने दिसंबर 2010 से काम करना शुरू कर दिया है।
  • सिद्धो-कान्हु-बिरसा विश्वविद्यालय भारत के पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में स्थित एक सार्वजनिक राज्य विश्वविद्यालय है। इसकी स्थापना अप्रैल, 2010 को पश्चिम बंगाल विधानमंडल के एक अधिनियम के तहत की गई थी।
  • सिद्धु कान्हू इंडोर स्टेडियम भारत के पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर में एक इनडोर स्टेडियम है। इसे दुर्गापुर नगर निगम द्वारा बनाया गया था, और इसने बैडमिंटन, टेबल टेनिस और अन्य खेलों के मैचों की मेजबानी की है।
  • सिद्धू और कान्हू मुर्मू की याद में बना यह पार्क रांची रेलवे स्टेशन से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित है
  • मध्य कोलकाता के एस्प्लेनेड में सिदो-कान्हो डहर का नाम उनके नाम पर रखा गया है।

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