झारखंड के क्रांतिकारी नीलांबर पीतांबर || Revolutionary Nilambar Pitambar of Jharkhand
झारखंड के क्रांतिकारी नीलांबर पीतांबर
नीलांबर एवं पीतांबर दो भाई थे, जिन्होंने देश के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर भाग लिया था। उनका जन्म झारखंड के पलामू में चेमो-सेन्या गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम चेमू सिंह था, जो वहां के एक जागीरदार थे।
पिता की मृत्यु के पश्चात बड़े भाई नीलांबर ने अपने छोटे भाई पीतांबर का लालन-पालन किया। दोनों भाइयों के पास जागीरदारी केवल नाम मात्र की बची रह गई थी। दोनों ने कठिन परिश्रम के बाद युद्ध कला सीखी, जिसमें उन्होंने धनुष, मशाल आदि शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण लिया और गोरिल्ला युद्धनीति में कुशलता प्राप्त की।
सन 1857 में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम को दोनों भाइयों ने बड़ी ही गंभीरता और निकटता के साथ अनुभव किया था। अंग्रेजों द्वारा किया जाने वाला अत्याचार, शोषण और भू-राजस्व की अंधाधुंध की वसूली जनसाधारण की कमर तोड़ रही थी। उसी समय, उन दोनों पर रांची में हो रहे डोरंडा विदोह का भी प्रभाव पड़ा, जो ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और पांडे गणपत राय के नेतृत्व में आगे बढ़ रहा था। उन आंदोलनों से उद्वेलित दोनों भाइयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का निर्णय लिया।
सबसे पहले उन भाइयों ने भोगता, खरवार, चेरो और निकट के क्षेत्र में रहने वाली जनजातियों को एकजुट किया और फिर अवसर देखकरआस-पास के उन जागीरदारों पर आक्रमण करना प्रारंभ किया, जो अंग्रेजों का सहयोग किया करते थे।
21 अक्टूबर, 1857 को चैनपुर, शाहपुर तथा लेस्लीगंज में 500 लोगों के समूह के साथ उन्होंने अंग्रेजों के एक पड़ाव पर आक्रमण कर दिया; किंतु वह अंग्रेजों की ओर से युद्ध कर रहे रघुवर दयाल से पराजित हुए। किंतु दोनों भाइयों और उनकी सेना ने अंग्रेजों को भारी क्षति पहुंचाई। तदनंतर यह विद्रोह नई ऊंचाइयों को छूता चला गया। लेफ्टिनेंट ग्राहम इस विद्रोह पर नियंत्रित नियंत्रण नहीं कर पा रहा था। दिसंबर 1857 में दो कंपनियों को एक अन्य स्वतंत्रता सेनानी देवी बक्स राय को गिरफ्तार करने के लिए मेजर कॉटर के नेतृत्व में रांची भेजा गया।
16 जनवरी, 1858 के दिन, घबराई अंग्रेज सरकार ने इस विद्रोह को दबाने के लिए कमिश्नर डाल्टन को मद्रास इंफ्रेंट्री के 140 सैनिक और रामगढ़ घुड़सवार की एक छोटी टुकड़ी के साथ रवाना किया। 24 फ़रबरी तक डाल्टन चेमो-सेन्या गांव पहुंच गया और उसने वहां 24 दिनों तक कोहराम मचाई रखा। तत्पश्चात, डाल्टन और ग्राहम दोनों ने मिलकर पलामू के दुर्ग पर आक्रमण कर दिया, जहां पर सभी विद्रोही ठहरे हुए थे, इस आक्रमण ने दोनों भाइयों और शेष स्वतंत्रता सेनानियों को दुर्ग छोड़ने पर विवश कर दिया।
इस घटना केउपरांत दोनों भाई अपने साथियों के साथ मिलकर जंगलों और गुफाओं में रहने लग गए। उन दोनों भाइयों को खोजने की प्रयास में डाल्टन ने उनके निकटतम मित्रों व सहयोगियों को प्रताड़ित करना आरंभ कर दिया और उनके घरों में आग लगाकर भारी क्षति पहुंचाई गई।
दोनों भाइयों का पता लगाने के लिए अंग्रेज अधिकारियों ने अपने गुप्तचर सभी जगह फैला रखे थे। एक दिन दोनों भाई अपने एक संबंधी से मिलने गांव आए हुए थे। उसी समय किसी गुप्तचर ने यह सूचना डाल्टन के पास पहुंचा दी और डाल्टन ने दोनों भाइयों को पकड़ने की योजना तैयार कर उन्हें अपने नियंत्रण में कर लिया। दोनों भाइयों को गांव में सभी के सामने आम के पेड़ के नीचे फांसी दे दी गई, ताकि जन - सामान्य में भय व्याप्त हो जाए और लोग ऐसे कार्य की पुनरावृति करने से पहले कई बार सोचें।
मान्यता है कि उन्हें फांसी देते समय पेड़ की डाली टूट गई थी और उन्हें मृत्युदंड देने के लिए एक बार फिर फांसी पर लटकाना पड़ा था। वह पेड़ आज भी वहां पाया जाता है और स्थानीय लोग उस पेड़ की पूजा करते हैं।
हालांकि, उन दोनों भाइयों के बलिदान के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती। कुछ स्रोतों के अनुसार, दोनों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था और उनको वहां फांसी दी गई थी। कुछ का यह भी मानना है कि पलामू दुर्ग पर आक्रमण के पश्चात अंग्रेज अधिकारियों ने दोनों पर दबाव डालकर उनसे आत्म-समर्पण करवाया। किंतु एक बात, जिसमें कोई मतभेद नहीं है, वह यह है कि दोनों भाइयों ने स्वतंत्रता के लिए मातृभूमि पर अपने प्राणों की आहुति दी थी।
वर्ष 2009 में झारखंड सरकार ने दोनों भाइयों के नाम पर मेदिनीनगर डाल्टनगंज में "नीलांबर पीतांबर विश्वविद्यालय" की स्थापना की। झारखंड में अनेक स्थानों पर अमर बलिदानी वीर नीलांबर-पीतांबर की प्रतिमा भी स्थापित की गई है।
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